या नबी या नबी का वज़ीफ़ा करो
रंग लाएगी उल्फ़त कभी न कभी
आएँगे तेरे घर में मेरे मुस्तफ़ा
तेरी चमकेगी क़िस्मत कभी न कभी
सरवर-ए-दो-जहाँ रब के दिलदार का
दिल में अरमाँ है गर उन के दीदार का
आप सल्ले-‘अला पढ़ के सो जाइए
उन की होगी ज़ियारत कभी न कभी
इस में हम सुन्नियों को कोई शक नहीं
और अहल-ए-रज़ा को है कामिल यक़ीं
ज़र्रा-भर जिस के दिल में है ‘इश्क़-ए-नबी
वो भी जाएँगे जन्नत कभी न कभी
मैं लहद में कहूँगा नकीरैन से
सामने से हटो, देखने दो मुझे
रात-दिन कह रही थी मेरी ज़िंदगी
इन की देखेंगे सूरत कभी न कभी
पाँव माँ का दबाना तू मत छोड़ना
उन की ख़िदमत से हरगिज़ न मुँह मोड़ना
प्यारी माँ की दुआओं के सदक़े तेरी
दूर होगी मुसीबत कभी न कभी
तेरे सर पे बलाओं का तूफ़ान है
इन दिनों तू बहुत ही परेशान है
रोज़ क़ुरआँ की घर में तिलावत करो
भाग जाएगी आफ़त कभी न कभी
शायर: नदीम रज़ा फ़ैज़ी
ना’त-ख़्वाँः नदीम रज़ा फ़ैज़ी
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