Aaj Rukhsat Ho Rahi Tumse Zahra Ya Ali | आज रूख़सत हो रही है तुमसे ज़हरा या अली
हाय बाद बाबा के जो गुज़री मुसीबत सुन लो
या अली फ़ातिमा ज़हरा की वसीयत सुन लो
आज रूख़सत हो रही है तुमसे ज़हरा या अली
पर्दा-ए-शब में मेरी मय्यित उठाना या अली
आज रूख़सत हो रही है तुमसे ज़हरा या अली
पसलियां तोड़ी गईं कैसे ये बतलाऊंगी मैं
हश्र के मैदां में भी इस हाल में आऊंगी मैं
हाथ पहलू से ना तुम मेरा हटाना या अली
आज रूख़सत हो रही है तुमसे ज़हरा या अली
वो मुसीबत आपने अच्छा हुआ देखी नहीं
अब मैं सीधे हाथ से तस्वीह पढ़ सकती नहीं
ऐसा कुन्फ़ुज़ ने है मारा ताज़ियाना या अली
आज रूख़सत हो रही है तुमसे ज़हरा या अली
हाय कहती है ज़ैनब ये मुझसे देखकर चेहरा मेरा
आपके रुख़सार पर ये नील है कैसा पड़ा
अरे मैंने खाया है तमाचा मत बताना या अली
आज रूख़सत हो रही है तुमसे ज़हरा या अली
ताज़ियाने की अज़ीयत का उठाना इक तरफ़
वो तमाचे क़त्ल-ए-मोहसिन दर जलाना इक तरफ़
सबसे मुश्किल था मगर दरबार जाना या अली
आज रूख़सत हो रही है तुमसे ज़हरा या अली
जब मेरी तलक़ीन पढ़ना याद कर लेना ज़रा
दर के गिरने से मेरा बाज़ू भी है टूटा हुआ
मेरे सानों को ज़रा धीरे हिलाना या अली
आज रूख़सत हो रही है तुमसे ज़हरा या अली
हाय चाहें आ जाए क़यामत मुझसे ये वादा करो
जब तलक मौला मेरे शब्बीर की मर्ज़ी ना हो
अरे तब तलक मेरा जनाज़ा मत उठाना या अली
आज रूख़सत हो रही है तुमसे ज़हरा या अली
जब से आई हूं पलट कर फ़िक्र है मुझको यही
मैं तो पर्दे में गई फिर भी ज़ईफ़ा हो गई
बेरिदा दरबार है ज़ैनब को जाना या अली
आज रूख़सत हो रही है तुमसे ज़हरा या अली
कर्बला में जब मेरे मज़लूम पर ख़ंजर चले
प्यास के आलम में वो ग़ाज़ी को जब आवाज दे
मैं भी आऊंगी वहां पर तुम भी आना या अली
आज रूख़सत हो रही है तुमसे ज़हरा या अली
हाय हाथ पहलू पर रखे बोलीं तकल्लुम फ़ातिमा
मैं दुआ करती हूं तुम आमीन कह देना ज़रा
जल्द आए मेरे मेहंदी का ज़माना या अली
आज रूख़सत हो रही है तुमसे ज़हरा या अली
Noha Khwan: Mir Hasan Mir
Poetry By: Mir Takallum Mir
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