सरे ला मकां से तलब हुई सुए मुन्तहा वो चले नबी कव्वाली लिरिक्स
कव्वाल: साबरी ब्रादर्स
शायर: हज़रत अम्बर अ़ली शाह वारसी
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ऐ ख़त्मे रुसुल काबए मक़सूद तुई
दर सूरते हर चे हस्त मैजूद तुई
आयाते कमाले ह़क़ अयां नस्त बतो
आं ज़ात के दर पर्दा निहां बूद तुई
सुहानी रात थी और पुर-सुकूं ज़माना था
असर में डूबा हुआ जज़्बे आशिक़ाना था
उन्हें तो अर्श पे मह़बूब को बुलाना था
हवस थी दीद की मेअ़राज का बहाना था
सरे ला मकां से तलब हुई
सुए मुन्तहा वो चले नबी।
सरे ला मकां से तलब हुई
सुए मुन्तहा वो चले नबी।
ये कमाले हुस्न का मोअ़्जिज़ा
के फ़िराक़ ह़क़ भी न सह सका
सरे ला मकां से तलब हुई
सुए मुन्तहा वो चले नबी
शबे मेअ़्राज लिया अर्शेबरीं पर बुल वाए
सदमए हिज्र ख़ुदा से भी गवारा न हुआ
सरे ला मकां से तलब हुई
सुए मुन्तहा वो चले नबी
सरे ला मकां से तलब हुई
सुए मुन्तहा वो चले नबी
कोई ह़द है उनके उरुज की
ब-ल-ग़ल उला बि कमालिही
ख़ैरूल-वरा, सदरुद्-दुका
नजमुल-हुदा, नूरूल उला
शमसुद्-दुहा, बदरुद्दुजा
यानी मोहम्मद मुस्तफा (स.अ.व)
आं कारवां सालारे दीं
या रहमतल्लिल आ़’लमी
आं मुक़्तदा ए मुरसलीं
आं पेशवा ए अम्बिया
जन्नत निशाने कूए तो
वश्शम्स ईमां रुए तो
वल्लैल वस्फे रूए तो
ख़ूबी ए रुयत बद्दुहा
इस्म-ए-तो इस्मे आ़’ज़मीं
जिस्म-ए-तो जाने आ़’लमीं
ज़ात-ए-तो फ़ख़्रे आ’दमी
शाने-तो शाने किबरिया
कोई ह़द है उनके उरुज की …
जो गया है फ़र्श से अर्श तक
वो बुराक़ ले गया बे धड़क
त-ब-क़े ज़िमीं व-र-क़े फलक
गए नीचे पांव से कुल सरक
लटें ज़ुल्फ़ की जो गयीं लटक
तो जहान सारा गया महक
हुईं मस्त बुलबुलें इस क़दर
तो ये ग़ुन्चे बोले चटक चटक
कोई ह़द है उनके उरुज की…
गए घर से चढ़ के बुराक पर
शबे वस्ल रुख़ से हुई सहर
ये सफ़र था ख़ूब से ख़ूब तर
यही था हर इक की ज़बान पर
कोई ह़द है उनके उरुज की
ब-ल-ग़ल उला बि कमालिही
यही इब्तिदा यही इन्तिहा
ये फ़रोग़ जलवए ह़क़ नुमा
के जहान सारा चमक उठा
कशाफद् दुजा बि जमालिही
रुख़े मुसतफ़ा कि ये रौशनी
ये तजल्लियों की हमा-हमी
के हर एक चीज़ चमक उठी
कशाफद् दुजा बे जमालिही
न फलक न चांद तारे न सहर न रात होती
न तेरा जमाल होता न ये क़ायनात होती
के हर एक चीज़ चमक उठी
कशाफद् दुजा बि जमालिही
वो सरापा रहमते किबरिया
के हर इक पे जिसका करम हुआ
ये क़ुराने पाक है बरमला
ह़सुनत जमीओ ख़िस्वालिही
ये कमाले ह़क़्के मुहम्मदी (स.अ.व)
के हर इक पे चश्मे करम रही
सरे हश्र नारा-ए उम्मती
ह़सुनत जमीओ ख़िस्वालिही
वोही हक निगर वो ही हक़ नुमा
रुख़े मुसतफ़ा है वो आइना
कि ख़ुदा ए पाक ने ख़ुद कहा
स्वल्लू अ़लैहे व आलेही
मेरा दीन अम्बरे वारसी
ब ख़ुदा है इश्के मोहम्मदी (स.अ.व)
मेरा ज़िक्रो फिक्र है बस यही
सल्लू अ़़लैहि व आलिही
चे कुनम बयाने कमाले ऊ
ब-ल-ग़ल उला बि कमालिही
चे फ़रोग़ करदा जमाले ऊ
कशाफ़द् दुजा बि जमालिही
मनो हैरतम ज़े ख़िसाले ऊ
ह़सुनत जमीओ ख़िस्वालिही
दिलो जाने मा ब-ख़याले ऊ
सल्लू अ़़लैहि व आलिही
ऐ मज़हरे नूरे ख़ुदा
ब-ल-ग़ल उला बि कमालिही
मौला अ़ली मुश्किल कुशा (र.अ.)
कशाफद् दुजा बि जमालिही
हसनैन जाने फ़ातिमा (र.अ.म.)
ह़सोनत जमीओ ख़िस्वालिही
यानी मोहम्मद मुस्तफा (स.अ.व)
सल्लू अ़़लैहि व आलिही
सल्लू अ़़लैहि व आलिही
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