दयार ए इश्क़ में अपना मक़ाम पैदा कर
कव्वाल: उस्ताद राहत फतेह अली ख़ान
शायर: डॉ. अल्लामा इक़बाल
(अल्लामा इक़बाल का ख़त बेटे जावेद इक़बाल के नाम)
तेरा जौहर है नूरी, पाक है तू
फारोग़ ए दीदः ए अफ़लाक है तू
तेरे सैद ए ज़बूं, अफ़रिश्ता ओ हूर
के शाहीन ए शह ए लौलाक है तू
हकीमी, नै मुसलमानी ख़ुदी की
कलीमी, रम्ज़-ए-पिन्हानी ख़ुदी की
तुझे गुर फ़क़्र ओ शाही का बता दूं
ग़रीबी मे निगेहबानी ख़ुदी की
दयार ए इश्क़ में..
दयार ए इश्क़ में अपना मक़ाम पैदा कर
दयार ए इश्क़ में अपना मक़ाम पैदा, पैदा, पैदा कर
दयार ए इश्क़ में अपना मक़ाम पैदा कर
दयार ए इश्क़ में….. इश्क़ में
दयार ए इश्क़ में….. इश्क़ में
ज़िन्दगी है सदफ, क़तरा-ए-नेसां है ख़ुदी
वोह सदफ क्या, के जो क़तरे को गुहर कर न सके
हो अगर ख़ुद-निगर ओ ख़ुद-गर ओ ख़ुदगीर ख़ुदी
ये भी मुमकिन है कि तू मौत से भी मर ना सके
दयार ए इश्क़ में….. इश्क़ में
दयार ए इश्क़ में….. इश्क़ में
दयार ए इश्क़ में अपना मक़ाम पैदा कर
दयार ए इश्क़ में अपना मक़ाम पैदा कर
दयार ए इश्क़ में अपना मक़ाम पैदा कर
अपना मक़ाम पैदा कर
अपना मक़ाम पैदा कर
ख़ुदी की जलवतो में मुस्तफाई
ख़ुदी की खलवतो में किबरियाई
ज़मीन ओ आस मान ओ अर्श ओ कुर्सी
ख़ुदी की ज़द में है सारी ख़ुदाई
अपना मक़ाम पैदा कर
अपना मक़ाम पैदा कर
तेरे सीने में दम है दिल नहीं है
तेरा दम गर्मी-ए-महफ़िल नहीं है
गुज़र जा अक़्ल से आगे, के ये नूर
चराग़-ए-राह है, मंज़िल नहीं है
देख.. अपना मक़ाम पैदा कर
अपना मक़ाम पैदा कर
फिर चराग़-ए-लाला से रौशन हुए कोहो-दमन
मुझको फिर नगमों पे उकसाने लगा मुर्ग़-ए-चमन
अपने मन में डूब कर, पा जा सुराग़े ज़िन्दगी
तू अगर मेरा नहीं बनता, न बन, अपना तो बन
मन की दुनिया, मन की दुनिया सोज ओ मस्ती जज़्ब-ओ-शौक़
तन की दुनिया, तन की दुनिया, सूद ओ सौदा मकरो-फ़न
मन की दौलत हाथ आती है तो फिर जाती नहीं
तन की दौलत छांव है, आता है धन जाता है धन
मन की दुनिया में न पाया मैंने अफरंगी का राज
मन की दुनिया में न देखे मैंने शैख़ ओ बरहमन (ब्राह्मण)
पानी पानी कर गई मुझको क़लंदर की ये बात
तू झुका जब गैर के आगे, न मन तेरा, न तन
अपना मक़ाम पैदा कर
अपना मक़ाम पैदा कर
नहीं तेरा नाशेमन, क़सर-ए-सुल्तानी के गुंबद पर
तू शाहीं है, बसेरा कर पहाड़ों की चटानों पर
अपना मक़ाम पैदा कर
अपना मक़ाम पैदा कर
ख़ुदी में गुम है ख़ुदाई, तलाश कर गाफिल!
यही है तेरे लिए अब सलाह-ए-कार की राह
हदीस-ए-दिल किसी दरवेश-ए-बे-गलीम से पूछ
ख़ुदा करे तुझे तेरे मक़ाम से आगाह
अपना मक़ाम पैदा कर
अपना मक़ाम पैदा कर
निगाहे फ़क़्र में शाने-सिकंदरी क्या है
खिराज की जो गदा हो, वो क़ै-सरी क्या है
बुतों से तुझको उम्मीदें, ख़ुदा से नौमीदी
मुझे बता तो सही, और काफ़िरी क्या है
फ़क़त निगाह से होता है फ़ैसला दिल का
न हो निगाह में शोख़ी तो दिलबरी क्या है
किसे नहीं है तमन्ना-ए-सरवरी लेकिन
खुदी की मौत हो जिस में, वोह सरवरी क्या है
अपना मक़ाम पैदा कर
अपना मक़ाम पैदा कर
ख़ुदी को कर बुलंद इतना के हर तक़दीर से पहले
ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे, बता! तेरी रज़ा क्या है
अपना मक़ाम पैदा कर
अपना मक़ाम पैदा कर
गला तो घोट दिया अहल-ए-मदरसा ने तेरा
कहां से निकले सदा लाइलाहा-इल्लल्लाह
अपना मक़ाम पैदा कर
अपना मक़ाम पैदा कर
हर शै मुसाफ़िर, हर चीज़ राही
क्या चांद-तारे, करता मुर्ग़ो-माही
कुछ कद्र अपनी, तूने न जानी
ये बे-सवामी, ये कम निगाही
पीर-ए-हरम को देखा है मैंने
किरदार-ए-बेसोज़, गुफ़्तार-ए-वाही
देख.. अपना मक़ाम पैदा कर
अपना मक़ाम पैदा कर
फिरे तूर-ए-सीना ओ बारान में
तजल्ली का फिर मुन्तज़िर है कलीम
मुसलमां है तौहीद में गर्म-जोश
मगर दिल अभी तक है ज़ुन्नार-पोश
तमद्दुन, तसव्वुफ़, शारीअ़त, कलाम
बूतान-ए-हरम के पुजारी तमाम
हक़ीक़त ख़राफ़ात में खो गई
ये उम्मात रवायात में खो गई
देख… अपना मक़ाम पैदा कर
अपना मक़ाम पैदा कर
लुभाता है दिल को कलाम-ए-ख़तीब
मगर लज़्ज़त-ए-शौक से बे-नसीब
बयां इसका मनतक से सुलझा हुआ
लुग़त के बखेड़ों में उलझा हुआ
वोह सूफ़ी के था ख़िदमत-ए-हक़ में मर्द
मोहब्बत में यक्ता, हमीयत में फर्द
अजम के ख़यालात में खो गया
ये सालिक मक़ामात में खो गया
बुझी इश्क़ की आग, अंधेर है
मुसलमां नहीं, रास्ता देर है
अपना मक़ाम पैदा कर
अपना मक़ाम पैदा कर
शराब-ए-कोहन फिर पिला साक़िया
वोही जाम गर्दिश में ला साक़िया
मुझे इश्क़ के पर लगा कर उड़ा
मेरी ख़ाक जुगनू बना कर उड़ा
हरी शाख-ए-मिल्लत तेरे नम से है
नफ़स इस बदन में तेरे दम से है
तड़पने, फड़कने की तौफ़ीक़ दे
दिल-ए-मुर्तुज़ा, सोज़-ए-सिद्दीक़ दे
जिगर से वोही तीर फिर पार कर
तमन्ना को सीनों में बेदार कर
तेरे आसमानों के तारों की ख़ैर
ज़मीनों के शब ज़िंदा-दारों की ख़ैर
जवानों को सोज़-ए-जिगर बख़्श दे
मेरा इश्क़, मेरी नज़र बख़्श दे
अपना मक़ाम पैदा कर
अपना मक़ाम पैदा कर
दयार-ए-इश्क़ में अपना मक़ाम पैदा कर
दयार-ए-इश्क़ में अपना मक़ाम पैदा कर
दयार-ए-इश्क़ में अपना मक़ाम पैदा कर
दयार-ए-इश्क़ में अपना मक़ाम पैदा कर
नया ज़माना, नए…
नया ज़माना, नए सुब्ह ओ शाम पैदा कर
नया ज़माना, नए सुब्ह ओ शाम पैदा कर
ख़ुदा अगर दिल-ए-फ़ितरत-शनास दे तुझको
सुकूत-ए-लाला ओ गुल से कलाम पैदा कर
मैं शैख़-ए-ताक हूं, मेरी ग़ज़ल है मेरा समर
मेरे समर से मैय-ए-लाला-फ़ाम पैदा कर
(सरगम)
मेरे समर से मैय-ए-लाला-फ़ाम पैदा कर
मेरा तरीक़ अमीरी नहीं, फ़क़ीरी है
न मोमिन है, न मोमिन की अमीरी
रहा सूफ़ी गई रौशन-ज़मीरी
ख़ुदा से फिर वही क़ल्ब ओ नज़र मांग
नहीं मुमकिन अमीरी बे-फ़क़ीरी
मेरा तरीक़ अमीरी नहीं, फ़क़ीरी है
ख़ुदी न बेंच, ग़रीबी में नाम पैदा कर
दयार ए इश्क़ में अपना मक़ाम पैदा कर
दयार-ए-इश्क़ में अपना मक़ाम पैदा कर
नया ज़माना, नए सुब्ह ओ शाम पैदा कर
नया ज़माना, नए सुब्ह ओ शाम पैदा कर
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